आचार्य श्रीराम शर्मा >> उत्तिष्ठत जाग्रत उत्तिष्ठत जाग्रतश्रीराम शर्मा आचार्य
|
0 5 पाठक हैं |
इस संग्रह में संकलित विचार जीवन में सफलता, सार्थकता प्रदायक सिद्ध हो सकते हैं
Uttisthat Jagrat - a Hindi book by Sriram Sharma Acharya
मनुष्य अनन्त-अद्भुत विभूतियों का स्वामी है। इसके बावजूद उसके जीवन में पतन-पराभव-दुर्गति का प्रभाव क्यों दिखाई देता है? कारण एक ही है कि मनुष्य अपने लिए मानवीय गरिमा के अनुरूप उपयुक्त लक्ष्य नहीं चुन पाता।
वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ, युगऋषि पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने ऋषियों के सनातन जीवन सूत्रों को वर्तमान युग के अनुरूप व्यावहारिक स्वरूप देकर प्रस्तुत किया है। उन सूत्रों का अध्ययन, मनन, चिन्तन, अनुगमन करके कोई भी व्यक्ति जीवन के श्रेष्ठ लक्ष्यों का निर्धारण करके उन्हें प्राप्त करने में सफल, समर्थ सिद्ध हो सकता है। जीवन को एक महत्त्वपूर्ण अवसर मानकर उसका सदुपयोग करने के इच्छुक हर नर-नारी के लिए इस संग्रह में संकलित विचार जीवन में सफलता, सार्थकता प्रदायक सिद्ध हो सकते हैं।
- प्रकाशक
¤ ¤ ¤
इस संसार में कमजोर रहना सबसे बड़ा अपराध है।
¤ ¤ ¤
जो आत्म-विश्वासी है, उसकी आशा कभी क्षीण नहीं हो सकती, वह केवल उज्ज्वल भविष्य पर ही विश्वास रख सकता है।
¤ ¤ ¤
दुनिया में आलस्य को पोषण देने जैसा दूसरा भयंकर पाप नहीं है।
¤ ¤ ¤
यदि आप प्रतिज्ञा कर लें कि मुझे अपना जीवन सत्यमय बनाना है, तो विश्वास रखिए आज से ही आपके कदम उस दिशा की ओर बढ़ने लगेंगे और कुछ ही दिनों में बड़ी भारी सफलता दृष्टिगोचर होने लगेगी।
¤ ¤ ¤
हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे।
¤ ¤ ¤
लापरवाही एक प्रकार की आत्महत्या है।
¤ ¤ ¤
चरित्र मनुष्य की सबसे बड़ी संपत्ति है। उसकी रक्षा करते हुए यदि दूसरों की तुलना में गरीबी का, सादगी का अभावग्रस्त जीवन जीना पड़े, तो उसे अपनी शान ही समझना चाहिए।
¤ ¤ ¤
धोखा किसी को नहीं देना चाहिए, पर धोखा खाना कहाँ की बुद्धिमानी है? हमें हर किसी पर पूरा विश्वास करना चाहिए, साथ ही पैनी निगाह से यह देखते रहना चाहिए कि कहीं कोई इस विश्वास का गलत अर्थ तो नहीं लगा रहा है।
¤ ¤ ¤
जिसे हम बुरा समझते हैं, उसे स्वीकार न करना सत्याग्रह है और यह किसी भी प्रियजन, संबंधी या बुजुर्ग के साथ किया जा सकता है। इसमें अनुचित या अधर्म रत्ती भर भी नहीं है। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। प्रह्लाद, विभीषण, बलि आदि की अवज्ञा प्रख्यात है। अर्जुन को गुरुजनों से लड़ना पड़ा था और मीरा ने परिजनों का कहना नहीं माना था।
¤ ¤ ¤
यह दुनिया तुम्हारे कार्यों की प्रशंसा करती है, तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं, खतरा तब है, जब तुम प्रशंसा पाने के लिए किसी काम को करते हो।
¤ ¤ ¤
वे मूर्ख हैं, जो पाप को पसंद करते हैं और दुःख भोगते हैं। तुम्हारे लिए दूसरा मार्ग मौजूद है, वह यह कि आधे पेट खाना, पर पाप कर्मों के पास न जाना।
¤ ¤ ¤
तुम क्या हो? यदि इस बात को जानना चाहते हो, तो आत्म-चिंतन करके देखो कि तुम्हारे विचार कैसे हैं? जिस प्रकार की इच्छा और आकांक्षाएँ तुम्हारे मन में उठती रहती हैं, अवश्य ही तुम वही हो।
¤ ¤ ¤
'कल' शैतान का दूत है। इतिहास से प्रकट है कि इस 'कल' की धार पर कितने प्रतिभावानों का गला कट गया। कितनों की योजनाएँ अधूरी रह गईं। कितनों के निश्चय जबानी जमा-खर्च रह गये। कितने 'हाय कुछ न कर पाया' कहते हुए हाथ मलते रह गये।
'कल' असमर्थता और आलस्य का द्योतक है।
¤ ¤ ¤
सत्य मार्ग से ही उन्नति प्राप्त करनी चाहिए। परमेश्वर सब कार्यों को यथावत् जानता है। इसलिए उससे कोई भी पाप करके बचा नहीं जा सकता।
¤ ¤ ¤
अपनी ही बात को ठीक मानने का अर्थ है और सबकी बातें झूठी मानना। इस प्रकार का अहंकार अज्ञान का द्योतक है। इस असहिष्णुता से घृणा और विरोध बढ़ता है, सत्य की प्राप्ति नहीं होती। सत्य की प्राप्ति होनी तभी संभव है, जब हम अपनी भूलों, त्रुटियों और कमियों को भी निष्पक्ष भाव से देखें।
¤ ¤ ¤
अनुशासनबद्ध जीवन जीने वाला व्यक्ति सदैव प्रसन्न चित्त और आनंदमय स्थिति में रहता है। उसकी उपस्थिति मात्र से वातावरण में प्रसन्नता की लहर दौड़ उठती है। अच्छाइयों का संचार होता है। भले काम उसके द्वारा स्वतः ही होने लगते हैं।
¤ ¤ ¤
यदि तुम सफलता चाहते हो, तो अध्यवसाय को अपना मित्र, अनुभव को अपना सलाहकार, सावधानी को भाई और आशा को अपना अभिभावक बनाओ।
¤ ¤ ¤
आप किसी भी लोभ-लालच के लिए अपनी आत्म-स्वतंत्रता मत बेचिए। किसी भी फायदे के बदले में आत्म-गौरव का गला मत कटने दीजिए; क्योंकि इससे आपकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी और आत्म-गौरव को प्रोत्साहन मिलेगा। आत्म-गौरव के साथ जीने में ही जिन्दगी का सच्चा आनंद है। चापलूसी और कायरता से यदि कुछ लाभ होता हो, तो भी उसे त्यागकरे कष्ट में रहना स्वीकार कर लीजिए।
¤ ¤ ¤
जब तुम उन्नति का उद्योग कर रहे हो, तो बड़ों के साथ रहो और जब शिखर पर पहुँच जाओ, तो छोटे मनुष्यों को साथ में रखो।
¤ ¤ ¤
ध्यानपूर्वक सुन लो, अच्छी तरह समझ लो, भलीप्रकार अनुभव कर लो कि तुम बढ़ रहे हो, एक निश्चित चेतना द्वारा तुम्हारे मन को बढ़ने के लिए अग्रसर किया जा रहा है। फिर भी उसकी गति किस ओर हो, यह बात तुम्हारे ऊपर छोड़ी गई है। ईश्वर ने एक गतिशील यंत्र देकर जीव को इस चतुर्मुखी दुनिया में घूमने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया है।
¤ ¤ ¤
गिरे हुए को उठाओ, गिरते हुए को सँभालो, पर धक्का किसी को मत दो। सोचो यदि कोई तुम्हें धक्का देने लगता है, तो तुम्हारा हृदय उसे कैसा अभिशाप देता है, वैसा ही उसका भी देगा।
¤ ¤ ¤
मनुष्य गलतियों से भरा हुआ है। सबमें कुछ न कुछ दोष होते हैं। इसलिए दूसरों के दोषों पर ध्यान न देकर उनके गुणों को परखना चाहिए और आपस में मिल-जुलकर एक दूसरे को सुधारने का उद्योग करते हुए प्रेमपूर्वक आगे बढ़ना चाहिए।
¤ ¤ ¤
जिस काम को आज कर सकते हैं, उसे कल के लिए छोड़ना मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी भूल है।
¤ ¤ ¤
नित्य हँसमुख रहो। मुख को मलीन कभी मत करो। यह निश्चय कर लो कि चिन्ता ने तुम्हारे लिए जगत् में जन्म ही नहीं लिया। इस आनंद के स्रोत जीवन में सिवा हँसने के चिन्ता के लिए स्थान ही कहाँ है?
¤ ¤ ¤
यदि गिर पड़ो, तो हताश मत होओ। गिरना बुरा नहीं है; क्योंकि गिरकर भी उठा जा सकता है। जो चढ़ता है, वही गिरता भी है। घबराओ मत। चलो, गिरो, उठो-फिर आगे बढ़ो।
¤ ¤ ¤
सुन्दर वही है, जिसका हृदय सुन्दर है। जो आकृति से बहुत सुन्दर है, जिसके शरीर का रंग और चेहरे की बनावट बहुत आकर्षक है; परन्तु जिसके हृदय में दुर्गुण और दोष भरे हैं, वह मनुष्य वास्तव में गंदा और कुरूप है।
¤ ¤ ¤
इस बात की परवाह मत करो कि लोग तुम्हें क्या कहते हैं? लोग तो अपने-अपने मन की कहेंगे। वे राग-द्वेष का जैसा चश्मा चढ़ाये होंगे, वैसा ही कहेंगे। उनकी प्रशंसा में फूलो मत और उनकी निन्दा से घबराकर लक्ष्य से मत हेटो।
¤ ¤ ¤
चार बातें नहीं भूलनी चाहिए-
१- बड़ों का आदर करना,
२- छोटों को सलाह देना,
३- बुद्धिमानों से सलाह लेना और
४- मूर्खा से न उलझना।
¤ ¤ ¤
जब तक तुम स्वयं अपने उद्धार के लिए कमर कसकर खड़े नहीं होते, तब तक करोड़ों ईसा, मुहम्मद, बुद्ध या राम मिलकर भी तुम्हारी रत्ती भर भी सहायता नहीं कर सकते। इसलिए दूसरों की तरफ मत ताको, अपनी सहायता आप करो।
¤ ¤ ¤
अपने से अधिक सुखी मनुष्यों को देखकर मन में ईष्र्या उत्पन्न मत करो, वरन् अपने से गिरी हुई दशा के कुछ उदाहरणों को सामने रखकर उनकी और अपनी दशा की तुलना करो, तब तुम्हें प्रसन्नता होगी कि ईश्वर ने तुम्हें उनकी अपेक्षा कितनी सुविधाएँ दे रखी हैं।
¤ ¤ ¤
कर्तव्यपालन करते हुए मौत मिलना मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सफलता और सार्थकता मानी गई है।
¤ ¤ ¤
यह जीवन संग्राम है। इसमें जो युद्ध की सी तत्परता व्यक्त नहीं करता, वह हार जाता है; पर जो प्रयत्न और पुरुषार्थ का गाण्डीव उठाकर रणोद्यत हो जाता है, वही अंत में विजय पाता है।
¤ ¤ ¤
जिसे नैतिकता के प्रति आस्था तो हो, पर उसके लिए लड़ पड़ने की हिम्मत न हो, वह भले ही कई डिग्रियाँ ले चुका हो, सुशिक्षित नहीं कहा जा सकता।
¤ ¤ ¤
परिश्रम और आत्म-विश्वास एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। दोनों मिलकर के ही लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ हो पाते हैं।
¤ ¤ ¤
दुनिया के कई लोग अपने आपको उन सौभाग्यशाली लोगों से अलग समझते हैं, जो महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर चुके हैं। ऐसा सोचना कितना हानिकारक है, इसका अनुमान सिर्फ इस बात से लगाया सकता है कि ऐसे विचार मात्र कई व्यक्ति को ऊँचाइयों पर पहुँचने से रोक देते हैं। अपने आपको बौना समझने वाला व्यक्ति देवता कैसे बन सकता है?
¤ ¤ ¤
दुनिया को चलाने और सुधारने की हमारी जिम्मेदारी नहीं है, पर अपने लिए जो कर्तव्य सामने आते हैं, उन्हें पूरा करने में सच्चे मन से लगना और उन्हें बढ़िया ढंग से करके दिखाना निश्चय ही हमारी जिम्मेदारी है।
¤ ¤ ¤
स्मरण रखा जाना चाहिए और विश्वास किया जाना चाहिए कि इस संसार में मनुष्य के लिए न तो कोई वस्तु या उपलब्धि अलभ्य है तथा न ही कोई व्यक्ति किसी प्रकार अयोग्य है। अयोग्यता एक ही है। और वह है, अपने आपके प्रति अविश्वास। यदि अपना उचित मूल्यांकन किया जाये, तो कोई भी बाधा मनुष्य को उसके लक्ष्य तक पहुँचने से नहीं रोक सकती।
¤ ¤ ¤
बुद्धि प्रधान किन्तु हृदय शून्य व्यक्ति भौतिक जीवन में कितना ही सफल क्यों न हो; किन्तु भाव सागर की चेतन परतों तक पहुँच सकने में वह असमर्थ होता है।
¤ ¤ ¤
शान्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए और युद्ध करके भी उसे प्राप्त करना चाहिए और कभी-कभी बल प्रयोग से भी उसे स्थापित करना चाहिए, यह बात एक घर और एक राष्ट्र दोनों के लिए ही लागू है।
¤ ¤ ¤
सफलता और कार्यक्षमता का आयु से कोई सम्बन्ध नहीं है।उत्साह, लगन और संकल्प बना रहे, तो किसी भी आयु या स्थिति में युवा रहा जा सकता है।
¤ ¤ ¤
श्रेष्ठ आदतों में सर्वप्रमुख है- नियमितता की आदत।
¤ ¤ ¤
विवेकहीन उत्साह तूफान से घिरे जहाज की तरह है, जिसके डूबने की आशंका हर क्षण बनी। रहती है।
¤ ¤ ¤
आदतें बनाई जाती हैं, भले ही उनका अभ्यास योजना बनाकर किया गया हो अथवा रुझान, संपर्क, वातावरण, परिस्थिति आदि कारणों से अनायास ही बनता चला गया हो। ये आदतें ही मनुष्य का वास्तविक व्यक्तित्व या चरित्र होते हैं। मनुष्य क्या सोचता है, क्या चाहता है, इसका अधिक मूल्य नहीं। परिणाम तो उन गतिविधियों के ही निकलते हैं, जो आदतों के अनुरूप क्रियान्वित होती रहती हैं। प्रतिफल तो कर्म ही उत्पन्न करते हैं और वे कर्म अन्य कारणों के अतिरिक्त प्रधानतया आदतों से प्रेरित होते हैं।
¤ ¤ ¤
श्रेष्ठ व्यक्तियों के तीन रूप होते हैं-
१- नेक हो तो चिन्ताओं से,
२- बुद्धिमान् हो तो उलझनों से और
३- सशक्त हो तो भयों से मुक्त रहेगा।
¤ ¤ ¤
किसी का भी अमंगल चाहने पर पहले अपना ही अमंगल होता है।
¤ ¤ ¤
बेईमानी और चालाकी से अर्जित किए गए वैभव का रौब और दबदबा बालू की दीवार की तरह है, जो थोड़ी सी हवा बहने पर ढह जाती है।
¤ ¤ ¤
इस दुनिया में तीन बड़े सत्य हैं-
१- आशा,
२- आस्था और
३- आत्मीयता
जिसने सच्चे मन से इन तीनों को जितनी मात्रा में हृदयंगम किया, समझना चाहिए सफल जीवन का आधार उसे उतनी ही मात्रा में उपलब्ध हो गया।
¤ ¤ ¤
समाज, दुर्गुणी व व्यसनी लोगों के दुर्गुणों, व्यसनों को उतना उपहासास्पद नहीं मानता, जितना सद्गुणी से दीखने वाले व्यक्तियों के दुर्गुणी व्यवहार को देखकर।
¤ ¤ ¤
महामानवों का आश्रय जहाज का आश्रय लेकर पार जाने की तरह है। बुद्धिमान् वे हैं, जो ऐसे अवसर का ध्यान रखते हैं और यदि मिल जाए, तो उससे चूकते नहीं।
¤ ¤ ¤
असफलता की उतनी निन्दा नहीं होती, जितनी गैर जिम्मेदारी और लापरवाही की।
¤ ¤ ¤
गई-गुजरी स्थिति में पड़े हुए लोग जब ऊँची सफलताओं के सपने देखते हैं, तो स्थिति और लक्ष्य के बीच भारी अंतर प्रतीत होता है और लगता है कि इतनी चौड़ी खाई पाटी न जा सकेगी; किन्तु अनुभव से यह देखा गया है कि कठिनाई उतनी बड़ी थी नहीं, जितनी कि समझी गई थी। धीमी किन्तु अनवरत चाल से चलने वाली चींटी भी पहाड़ों के पार चली जाती है, फिर धैर्य, साहस, लगन, मनोयाग और विश्वास के साथ कठोर पुरुषार्थ में संलग्न व्यक्ति को प्रगति की मंजिलें पार करते चलने से कौन रोक सकेगा?
¤ ¤ ¤
साधनों की स्वल्पता, परिस्थितियों की विकटता होते हुए भी प्रचण्ड संकल्प शक्ति और अदम्य साहसिकता के बल पर मनुष्य बहुत कुछ कर सकता है।
¤ ¤ ¤
विचारवान् अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को दोषी नहीं ठहराते, वरन् गंभीरतापूर्वक यह खोजते हैं कि किन त्रुटियों के कारण पिछड़ना पड़ा।
¤ ¤ ¤
उस व्यक्ति की भला कोई क्यों सहायता करेगा, जो हेय स्थिति में पड़े रहने में संतुष्ट है और दुर्भाग्य के सामने नतमस्तक होकर गिर पड़ा है।
¤ ¤ ¤
मनमर्जी पर चलने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि जो सोचा जा रहा है, उसमें किंचित् लाभ के अतिरिक्त कहीं कोई भयानक हानि तो छिपी नहीं पड़ी है।
¤ ¤ ¤
प्रेम संसार की वह ज्योति है, जिसका प्रकाश पाकर हर व्यक्ति अपने अंतरंग के कषाय-कल्मषों को दूर करता और हृदय को पवित्र-निर्मल बनाता है।
¤ ¤ ¤
नियति क्रम से हर वस्तु का, हर व्यक्ति का अवसान होता है। मनोरथ और प्रयास भी सर्वदा सफल कहाँ होते हैं? यह सब अपने ढंग से चलता रहे, पर मनुष्ये भीतर से टूटने न पाए, इसी में उसका गौरव है। जिस प्रकार समुद्र तट पर जमी हुई चट्टानें चिर अतीत से अपने स्थान पर जमी अड़ी बैठी हैं। हिलोरों ने अपना टकराना बंद नहीं किया सो ठीक है, पर यह भी कहाँ गलत है कि चट्टान ने हार नहीं मानी। वस्तुत: न हमें टूटना चाहिए और न हार माननी चाहिए।
¤ ¤ ¤
जीवन एक छोटा दिवस है; किन्तु है वह काम का दिन, छुट्टी का दिन नहीं। संभव है कि किसी काम से तुम बुराई की ओर जा रहे हो; किन्तु काम न करना कभी अच्छाई की ओर नहीं ले जा सकता।
¤ ¤ ¤
हमारे जीवन का व्यवहार ही हमारे हृदय की सच्चाई का एकमात्र प्रमाण है।
¤ ¤ ¤
सबसे बड़ा और सबसे प्रथम विभूतिवान् व्यक्ति वह है, जिसके अंत:करण में उत्कृष्ट जीवन जीने और आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने के लिए निरन्तर उत्साह उमड़ता है।
¤ ¤ ¤
जो अपनी उच्च वृत्तियों की ओर ध्यान देता है, वह ऊँचा हो जाता है। जो सदा अपनी छोटी वृत्तियों की ओर ही आकृष्ट होता है, वह वास्तव में छोटा रह जाता है। के अधिकार की अहमन्यता में किसी को कटु शब्द कहना असभ्यता का परिचय देना है।
¤ ¤ ¤
योग्यताओं का अभाव जीवनोन्नति में जितना बाधक होता है, उससे कहीं अधिक बाधक साहस का अभाव होता है।
¤ ¤ ¤
कर्तव्यपालन ही जीवन का सच्चा मूल्य है।
¤ ¤ ¤
वासनाएँ चोर के समान होती हैं। जिस प्रकार चोर अँधेरा देखकर निर्बल व्यक्ति को लूट ले जाते हैं, उसी प्रकार वासनाएँ भी निर्बल इच्छा शक्ति वाले, निर्बल चरित्र वाले मूढ़ व्यक्तियों पर अपना हमला बोल देती हैं।
¤ ¤ ¤
जिसके जीवन का कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता, उसे कुकामनाएँ शीघ्र ही प्रलोभन देने लगती हैं।
¤ ¤ ¤
सत्य की श्रेष्ठता सर्वोपरि है। उसमें अगर-मगर भले ही जोड़ा जाए; किन्तु स्पष्ट रूप से उसका विरोध नहीं हो सकता।
¤ ¤ ¤
विपत्तियों और असफलताओं की आशंका का विष पीते रहने पर साहस और पुरुषार्थ दम तोड़ देता है। ऐसा अशुभ चिंतन जिनके पल्ले बंध जाता है, वे निराश रहते हैं और भविष्य को विपत्तिग्रस्त देखते हुए शोक-संताप में डूबे रहते हैं।
¤ ¤ ¤
दुःख से हानि तभी है, जब मनुष्य उनका अभ्यस्त बनकर दीन-हीन बन जाए और अकर्मण्य बनकर उनसे छुटकारा पाने का प्रयास ही छोड़ बैठे।
¤ ¤ ¤
केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्त्व है, जो कहीं भी, किसी भी अवस्था और किसी भी काल में मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता।
¤ ¤ ¤
आत्म-निरीक्षण और आत्म-शुद्धि की वृत्ति को. स्वभाव में लाये बिना कभी भी किसी व्यक्ति का चरित्र महान् नहीं हुआ है; बल्कि चरित्र निर्माण के ये दोनों ही महान् साधन हैं।
¤ ¤ ¤
जिसका मन हार जाता है, वह बहुत कुछ होते हुए भी अंत में पराजित हो जाता है। जो शक्ति न होते हुए भी मन से हार नहीं मानता, उसको दुनिया की कोई ताकत परास्त नहीं कर सकती।
¤ ¤ ¤
विचारों की शक्ति आग या बिजली की तरह है, उसके साथ मखौलबाजी करना खतरनाक है।
¤ ¤ ¤
अवांछनीय विचारों को मस्तिष्क में स्थान देने और उन्हें वहाँ जड़ जमाने का अवसर देने का अर्थ है-भविष्य में हम उसी स्तर का जीवन जीने की तैयारी कर रहे हैं। भले ही यह सब अनायास या अनपेक्षित रीति से हो रहा है, पर उसका परिणाम तो होगा ही। उचित यही है कि हम उपयुक्त और रचनात्मक विचारों को ही मस्तिष्क में प्रवेश करने दें। यदि उपयोगी और विधायक विचारों का आह्वान करने और अपनाने का स्वभाव बना लिया जाए, तो नि:संदेह प्रगति पथ पर बढ़ चलने की संभावनाएँ आश्चर्यजनक गति से विकसित हो सकती हैं।
सारा मनुष्य समाज एक सूत्र में बँधा होने के कारण हम सब आपस में एक दूसरे की हीनता के लिए जिम्मेदार हैं।
¤ ¤ ¤
दुनिया की तीन मूर्खताएँ कितनी उपहासास्पद होते हुए भी कितनी व्यापक हो गई हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है कि-
१-लोग धन को ही शक्ति मानते हैं।
२-लोग अपने को सुधारे बिना दूसरों को धर्मोपदेश देते हैं।
३-कठोर श्रम से बचे रहकर भी आरोग्य की आकांक्षा की जाती है।
¤ ¤ ¤
प्रकृति ने शरीर को इस प्रकार बनाया है कि उसे सावधानी बरत कर ही सुदृढ़, सुरक्षित रखा जा सकता है। बीमार होने पर अपने ही प्रयत्न-प्रायश्चित्त से उसे सुधारा जा सकता है। इस राजमार्ग को छोड़कर जो दूसरों का सहारा तकने और सहायता करने के लिए दौड़ते हैं, उन्हें निराश ही रहना पड़ता है। क्या शरीर, क्या मन, क्या जीवन सर्वत्र स्वावलम्बन की ही प्रतिष्ठा है, पराये अनुदान पर कोई कब तक जीवित रह सकता है।
¤ ¤ ¤
आपने उन्नति की योजनाएँ बनाई हैं, आपके मन में शुभ विचार, क्रियात्मक भावनाएँ उदित हुई हैं। आप सोचते हैं, कल से इन योजनाओं के अनुसार कार्य प्रारंभ करेंगे और यह कल नहीं आता है। कल आप सोचते हैं कि परसों करेंगे या नरसों और फिर यह कहने लगते हैं कि फिर देखा जाएगा। इस प्रकार शुभ विचारों और नई योजनाओं को निरन्तर टालते जाते हैं - कल, परसों, पन्द्रह दिन पश्चात्, एक माह बाद, अगले साल इस तरह आप कोई भी उन्नति नहीं करते। धीरेधीरे वे शुभ भावनाएँ मन:जगत् से बिलकुल विलुप्त हो जाती हैं। वस्तुतः टालने की आदत मानव मस्तिष्क की एक बड़ी कमजोरी है।
¤ ¤ ¤
मनुष्य की गरिमा के तीन आधार स्तम्भ हैं-
१-जीवन की पवित्रता
२-क्रियाकलाप की प्रामाणिकता और
३-लोकसेवा के प्रति श्रद्धा जिनके पास ये तीनों विभूतियाँ हैं, उनके लिए महामानव बनने का द्वार खुला पड़ा है।
¤ ¤ ¤
मनुष्य पुरुषार्थ का पुतला है। उसकी शक्ति और सामर्थ्य का अंत नहीं। वह बड़े से बड़े संकटों से लड़ सकता है और असंभव के बीच संभव की अभिनव किरणें उत्पन्न कर सकता है। शर्त यही है कि वह अपने को समझे और अपनी सामर्थ्य को मूर्त रूप देने के लिए साहस को कार्यान्वित करे।
¤ ¤ ¤
उत्तम विचारों को मन में लाने से उत्तम कार्य होते हैं, उत्तम कार्यों के करने से जीवन उत्तम होता है और उत्तम जीवन से आनंद की प्राप्ति होती है।
¤ ¤ ¤
यदि सच्चा प्रयत्न करने पर भी तुम सफल न हो, तो कोई हानि नहीं। पराजय बुरी वस्तु नहीं है, यदि वह विजय के मार्ग में अग्रसर होते हुए मिली हो। प्रत्येक पराजय विजय की दिशा में कुछ आगे बढ़ जाना है। हमारी प्रत्येक पराजय यह स्पष्ट करती है कि अमुक दिशा में हमारी कमजोरी है, अमुक तत्त्व में हम पिछड़े हुए हैं या किसी विशिष्ट उपकरण पर हम समुचित ध्यान नहीं दे रहे हैं। पराजय हमारा ध्यान उस ओर आकर्षित करती है, जहाँ हमारी निर्बलता है।
¤ ¤ ¤
आलस्य की बढ़ती हुई प्रवृत्ति व श्रम से जी चुराने की आदत हमें ऐसी स्थिति में ले जाएगी, जहाँ जीवन जीना भी कठिन हो सकता है। प्रगति की किसी भी दिशा में अग्रसर होने के लिए सबसे पहला साधन ' श्रम' ही है। जो जितना परिश्रमी होगा, वह उतना ही उन्नतिशील होगा।
जो समाज मात्र रोटी और मनोरंजक सामग्री पर संतोष कर लेता है, वह एक अत्यन्त निकृष्ट कोटि का समाज बन जाता है।
¤ ¤ ¤
हमारा कर्तव्य है कि हम लोगों को विश्वास दिलाएँ। कि वे सब एक ही ईश्वर की संतान हैं और इस संसार में एक ही ध्येय को पूरा करना उनका धर्म है। उनमें से प्रत्येक मनुष्य इस बात के लिए बाधित है कि वह अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जिन्दा रहे। जीवन का ध्येय कम या ज्यादा संपन्न होना नहीं, बल्कि अपने को तथा दूसरों को सदाचारी बनाना है।
¤ ¤ ¤
अन्याय और अत्याचार जहाँ कहीं भी हों, उनके विरुद्ध आन्दोलन करना मात्र एकअधिकार नहीं, धर्म है और वह भी ऐसा धर्म, जिसकी उपेक्षा करना पाप है।
¤ ¤ ¤
संसार में आज तक किसी घमण्डी का सिर ऊँचा नहीं रहा, उसे नीचा होना ही पड़ता है। इसलिए कल्याण इसी में है कि मनुष्य शक्ति, संपत्ति, साधन, समर्थन, सहायक अथवा विद्या, बुद्धि, रूप-रंग, सफलता एवं उपलब्धि आदि किसी बात पर घमण्ड न करे।
¤ ¤ ¤
ऊँची उड़ानें उड़ने की अपेक्षा यह अच्छा है कि आज की स्थिति को सही मूल्यांकन करें और उतनी बड़ी योजना बनाएँ, जिसे आज के साधनों से पूरा कर सकना संभव है।
¤ ¤ ¤
सपनों के पंख लगाकर सुनहरे आकाश में दौड़ तो कितनी ही लम्बी लगाई जा सकती है, पर पहुँचा कहीं नहीं जा सकता।
¤ ¤ ¤
मनुष्य जितना निर्भय होगा, उतना ही वह महान् कार्यों का सूत्रपात करेगा।
¤ ¤ ¤
शक्ति की असली परीक्षा किसी तरह सफलता प्राप्त कर लेना भर नहीं है, वरन् उसके सदुपयोग से ही प्राप्तकर्ता का गौरव आँका जाता है।
¤ ¤ ¤
जो स्वयं कुछ नहीं कर सकते और दूसरों को भी कुछ करते नहीं देख सकते, उनकी दुर्गति निश्चित है।
¤ ¤ ¤
उदासी जीवन को असफलताओं का श्मशानं बनाकर रख देती है। उसे एक प्रकार का अभिशाप ही कहना चाहिए ।इस विपत्ति से जो ग्रसित हो गये हैं, उन्हें अपने उद्धार का शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए। ६ यदि किसी व्यक्ति ने अपनी उन्नति या विकास कर लिया; किन्तु उससे समाज को कोई लाभ नहीं मिला, तो उसकी सारी उपलब्धि व्यर्थ है।
¤ ¤ ¤
मधुरभाषी जीभ और सद्भाव संपन्न हृदय़ को मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि कहा गया है, पर यदि वे कटुवचन एवं दुर्भाव से भरे हों, तो उनकी निकृष्टता भी असंदिग्ध है।
¤ ¤ ¤
जीवन में बाधाओं और असफलताओं को पार करते हुए लक्ष्य की ओर साहसपूर्वक बढ़ते जाना ही मनुष्य की महानता है।
¤ ¤ ¤
जहाँ केवल विचार है या केवल क्रिया अथवा दोनों का अभाव है, वह व्यक्ति, समाज या राष्ट्र उन्नत नहीं हो सकता।
¤ ¤ ¤
बड़े-बड़े उपदेश, व्याख्यान, लेखनबाजी का समाज पर प्रभाव अवश्य पड़ता है; किन्तु वह क्षणिक होता है। किसी भी भावी क्रान्ति, सुधार, रचनात्मक कार्यक्रम के लिए प्रारंभ में विचार ही देने पड़ते हैं; किन्तु सक्रियता और व्यवहार का संस्पर्श पाये बिना उनको स्थायी और मूर्त रूप नहीं देखा जा सकता।
¤ ¤ ¤
किसी भी समाज या राष्ट्र की सबसे बड़ी कमजोरी उसके नागरिकों की आत्मिक दुर्बलता हुआ करती है। यह दुर्बलता जहाँ होगी, वहाँ सारे साधन होते हुए भी शोक, संताप, क्लेश, कलह, अभाव और दारिद्रय का ही वातावरण बना रहेगा।
¤ ¤ ¤
नाम और यश की चाहना से दूर रहने वाले, प्रतिष्ठा, पद और ख्याति से बचने वाले सच्चे लोकसेवक सचमुच ही इस धरती के देवदूत कहलाते हैं।
¤ ¤ ¤
संसार में बुराइयाँ इसलिए बढ़ रही हैं कि बुरे आदमी अपने बुरे आचरणों द्वारा दूसरों को ठोस शिक्षण देते हैं। उन्हें देखकर यह अनुमान लगा लिया जाता है। कि इस कार्य पर इनकी गहरी निष्ठा है, जबकि सद्विचारों के प्रचारक वैसे उदाहरण अपने जीवन में प्रस्तुत नहीं कर पाते। वे कहते तो बहुत कुछ हैं, पर ऐसा कुछ नहीं करते, जिससे उनकी निष्ठा की सच्चाई प्रतीत हो।
¤ ¤ ¤
दुर्भावना के वातावरण में पंचशील के सिद्धान्त अंतर्राष्ट्रीय जगत् में भले ही सफल न हुए हों, पर पारिवारिक जगत् में वे सदा सफल होते हैं यथा -
१- परस्पर आदर-भाव से देखना
२- अपनी भूल स्वीकार करना,
३- आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
४- भेदभाव न रखना।
५- विवादों का निष्पक्ष निपटारा।
¤ ¤ ¤
फलासक्ति, कर्त्तापन का अभिमान एक बहुत बड़ी फिसलन है, जिससे गिरने के बाद अधिकांश लोग उठ नहीं पाते और नीचे ही गिरते चले जाते हैं।
¤ ¤ ¤
किसी भी बात का समाज में प्रचार करने के लिए पहले उसे अपने जीवन में अपनाना आवश्यक है। समाज के अगुवा लोग जैसा आचरण करते हैं, उसका अनुकरण दूसरे लोग करते हैं। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक कार्यकर्ता और नेता लोग जब अपने प्रत्यक्ष आचरण और उदाहरण के द्वारा जनता को चरित्र निर्माण का मार्ग दिखाएँगे, तो वह दिन दूर नहीं होगा, जब भ्रष्टाचार हमारे समाज से दूर हट जाएगा।
¤ ¤ ¤
मनुष्य की श्रेष्ठता और निकृष्टता दो कसौटियों पर परखी जा सकती है और वे हैं-धन और नारी। इन दो के संबंध में जिनका दृष्टिकोण धर्म बुद्धि से संचालित होता है, जो इन दो प्रलोभनों के आगे ईमानदार बने रहते हैं, वस्तुत: वे ही खरे आदमी हैं।
¤ ¤ ¤
समाज हितैषी व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे समाज में इस धारणा का प्रचार करें कि किसी प्रकार की हराम की कमाई नहीं, वरन् ईमानदारी का पैसा ही मनुष्य को सुख और शान्ति प्रदान कर सकता है।
¤ ¤ ¤
जो काम खुद को करना है, उसे स्वयं ही पूरा करें। अपना काम दूसरों पर छोड़ना भी एक तरह से दूसरे दिन काम टालने के समान ही है। ऐसे व्यक्ति के सामने से अवसर भी निकल जाता है और उसका काम भी पूरा नहीं होता।
¤ ¤ ¤
शिष्टाचार व्यवहार की वह रीति-नीति है, जिसमें व्यक्ति और समाज की आंतरिक सभ्यता और संस्कृति के दर्शन होते हैं।
¤ ¤ ¤
सफलता के सूत्र-
१- जीवन में एक लक्ष्य, एक ध्येय और एक कार्यक्रम का चुनाव करना।
२- अपनी संपूर्ण शक्ति, क्षमता को अपने लक्ष्य की पूर्ति में लगाना।
३- अपनी इच्छा और पसंद के स्वभाव को व्यापक बनाना।
४- खतरों से खेलने का स्वभाव सँजोना।
५- खिलाड़ी की भावना रखना।
¤ ¤ ¤
इस दुनिया में हर वस्तु कीमत देकर प्राप्त की जाती है। यही यहाँ का नियम है। सफलताएँ भी उत्कृष्ट मनोभूमि और आत्मबल के मूल्य पर खरीदी जाती हैं। यदि ये साधन पास में न हों, तो फिर बड़ी बड़ी आशाएँ और आकांक्षा करना निरर्थक है।
¤ ¤ ¤
श्रद्धा वस्तुत: एक सामाजिक भावना है। वह एक ऐसी आनंदपूर्ण कृतज्ञता है, जो एक प्रतिनिधि के रूप में समाज के सम्मुख हम प्रकट करते हैं। लेने-देने की कोई बात श्रद्धा में नहीं होती। वह तो एक सामाजिक उत्तरदायित्व है। जनसामान्य का धर्म है। कोई भी व्यक्ति श्रद्धा का पात्र हो सकता है, यदि वह सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी होता है।
¤ ¤ ¤
प्रेम के लिए अपने आपका उत्सर्ग करने वाला जीवन ही वास्तव में जीवन कहलाने का अधिकारी है। जीवन में सभी कुछ बदलता रहता है। अवस्था, विचार, परिस्थितियाँ, मनुष्यों का विश्वास, यहाँ तक कि यह देह भी बदलती है। इस परिवर्तन प्रधान संसार में यदि अजर-अमर रहता है, तो वह है प्रेम।
¤ ¤ ¤
शालीनता बिना मोल मिलती है, परन्तु उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है।
¤ ¤ ¤
किसी को कुछ देने की इच्छा हो और देते बन पड़े तो सर्वोत्तम उपहार आत्म-विश्वास जगाने वाला प्रोत्साहन ही हो सकता है।
¤ ¤ ¤
लोभ का आकर्षण, संबंधियों का आग्रह तथा जोखिम का भय इन तीनों का सामना करने का साहस जुटा सकने वाला ही सच्चा शूरवीर है।
¤ ¤ ¤
बुद्धिमत्ता का अर्थ है-सुलझे हुए विचार, स्पष्ट दृष्टिकोण और उत्तरदायित्व समझने एवं निबाहने की परिपक्वता।
¤ ¤ ¤
बुद्धि, श्रम, समय और शक्ति का जिनने सदुपयोग करना सीख लिया, उनके लिए संपन्नता एक सहज उपलब्धि है।
¤ ¤ ¤
एकाग्रता और दिलचस्पी से बढ़कर जादुई शक्ति और कुछ नहीं, उन्हें जहाँ भी नियोजित किया जाता है, वहाँ योग्यता की कमी नहीं रहती।
¤ ¤ ¤
कामुकता की दुष्प्रवृत्ति मानव जीवन की श्रेष्ठताओं और विशेषताओं को बर्बाद करने वाली एक सत्यानाशी डायन है।
¤ ¤ ¤
बुद्धिमान् वह है, जो किसी को गलतियों से हानि उठाते हुए देखकर अपनी गलतियाँ सुधार लेता है।
¤ ¤ ¤
विकसित और परिष्कृत व्यक्तित्व का अर्थ हैअपनी मान्यता को स्पष्ट, किन्तु नम्र और संतुलित शब्दों में व्यक्त कर डाले। जो ऐसा नहीं कर पाते, वह अपना मूल्य आप ही गिराते हैं।
¤ ¤ ¤
सद्विचार तब तक मधुर कल्पना भर बने रहते हैं, जब तक उन्हें कार्य रूप में परिणत नहीं किया जाता।
¤ ¤ ¤
अपना मूल्य गिरने न पाये, यह सतर्कता जिसमें जितनी पाई जाती है, वह उतना ही प्रगतिशील है।
¤ ¤ ¤
सिद्धान्तों के शब्द जाल में उलझकर व्यक्ति ज्ञानी तो नहीं, अभिमानी जरूर बन जाता है और व्यक्ति को अभिमान से वैसे ही विरक्त रहना चाहिए, जिस प्रकार जल से कमल।
¤ ¤ ¤
प्रतिभाशाली का पाप समाज का बहुत बड़ा अहित करता है।
¤ ¤ ¤
पैसे से भी अधिक महत्त्वपूर्ण संपत्ति है-समय। खोया हुआ पैसा फिर पाया जा सकता है, पर खोया हुआ समय फिर कभी लौटकर नहीं आता। के जीवन के कुछ स्तम्भ हैं, जिनके आधार पर सारा जीवन टिका है। अगर ये स्तम्भ कमजोर हैं, तो जीवन का कोई महत्त्व नहीं है, वे आधार हैं-
१-दृढ़ संकल्प
२-आत्म-विश्वास
३-निश्चित उद्देश्य
४-अनुकूल वातावरण और
५-सही विचार।
¤ ¤ ¤
देवमानव वे हैं, जो आदर्शों के क्रियान्वयन की योजना बनाते और सुविधा की ललक-लिप्सा को अस्वीकार करके युगधर्म के निर्वाह की काँटों भरी राह पर एकाकी चल पड़ते हैं।
¤ ¤ ¤
ऊँचे उठो, प्रसुप्त को जगाओ, जो महान् है, उसका अवलम्बन करो और आगे बढ़ो।
¤ ¤ ¤
यदि तुम सफलता चाहते हो, तो अध्यवसाय को अपना मित्र, अनुभव को अपना सलाहकार, सावधानी को भाई और आशा को अपना अभिभावक बनाओ।
¤ ¤ ¤
दुनिया में भाग्य को रोककर नष्ट करने वाले दो ही कारण हैं-
१-अभिमान
२-घृणा।
¤ ¤ ¤
सच्चा साथी प्यार करता है, सलाह देता है तथा सुख-दु:ख में सहयोग भी देता है। इसके अलावा वह शक्ति और सुरक्षा भी दे और प्रत्युपकार की जरा भी अपेक्षा न रखे, तो वह सोने में सुहागा हो जाएगा-ईश्वर ही ऐसा साथी है।
¤ ¤ ¤
अपने प्रति उच्च भावना रखिए। छोटे से छोटे काम को भी महान् भावना से करिए। बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी निराश न होइए। आत्म-विश्वास एवं आशा का प्रकाश लेकर आगे बढ़िए। जीवन के प्रति अखण्ड निष्ठा रखिए और फिर देखिए कि आप एक स्वस्थ, सुन्दर, सफल एवं दीर्घजीवन के अधिकारी बनते हैं या नहीं?
¤ ¤ ¤
सत्प्रेरणाएँ प्रत्येक मनुष्य के अंत:करण में छिपी रहती हैं। दुष्प्रवृत्तियाँ भी उसी के अंदर होती हैं। अब यह उसकी अपनी योग्यता, बुद्धिमत्ता और विवेक पर निर्भर है कि वह अपना मत देकर जिसे चाहे उसे विजयी बना दे।
¤ ¤ ¤
संतोष करने का अर्थ है-आपने प्रकृति के साथ मित्रता कर ली है। कुछ दिन इस तरह का अभ्यास डाल लेने से सुख और दुःख दोनों का स्तर समान हो जाएगा। तब केवल अपना ध्येय-जीवन लक्ष्य प्राप्त करना ही शेष रहेगा, इसलिए समझना पड़ता है कि दु:ख-सुख इनमें से किसी के प्रभाव में न पड़ो, दोनों का मिला-जुला जीवन ही मनुष्य को लक्ष्य तक पहुँचाता है। जीवन लक्ष्य का प्रादुर्भाव दु:ख और सुख के सम्मिलन से होता है।
¤ ¤ ¤
मृत्यु सदा सिर पर नाचती खड़ी रहती है। इस समय साँस चल रही है, अगले ही क्षण बंद हो जाय इसका क्या ठिकाना? यह सोचकर इस सुर दुर्लभ मानव जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करना चाहिए और थोड़े जीवन में क्षणिक सुख के लिए पाप क्यों किया जाए, जिससे चिरकाल तक दु:ख भोगने पड़े, ऐसा विचार करना चाहिए।
¤ ¤ ¤
धन, यौवन अस्थिर हैं। छोटे से रोग या हानि से इनका विनाश हो सकता है। इसलिए इनका अहंकार न करके-दुरुपयोग न करके ऐसे कार्यों में लगाना चाहिए, जिससे भावी जीवन में सुख-शान्ति की अभिवृद्धि हो।
¤ ¤ ¤
असावधान-आलसी पुरुष एक प्रकार का अर्ध मृत है।
¤ ¤ ¤
बिना सिद्धान्तों को जाने केवल अनुभव निर्बल है। और बिना अनुभव का ज्ञान निष्फल है।
¤ ¤ ¤
धन्य वे हैं, जो अपने पराक्रम का उपयोग केवल असुरत्व विनाश के लिए करते हैं और उस पराक्रम का तनिक भी दुरुपयोग न करके अपने को जरा भी पाप-पंक में गिरने नहीं देते।
¤ ¤ ¤
उन्नतिशील होना पूर्णतया भाग्य पर निर्भर नहीं है। विचारपूर्वक देखने से पता चलता है कि परमात्मा से जो साधन मनुष्यों को मिले हैं, वे प्राय: समान हैं। हर किसी को दो हाथ, दो पाँव, नाक, आँख, मुख आदि एक जैसे मिले हैं। विचार विद्या आदि के साधन भी प्रत्येक मनुष्य अपनी लगन के अनुसार प्राप्त कर सकता है। भाग्यवादी सिद्धान्त कायरों और कापुरुषों का है। पुरुषार्थ एक भाव है और उसका कर्ता पुरुष है। अर्थात् मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण अपने पौरुष से करता है। अपनी पूर्व असमृद्धि से किसी को अपनी क्षुद्रता स्वीकार नहीं कर लेनी चाहिए।बलवान् आत्माएँ प्रतिकूल दिशा से भी उन्नति करती है।
¤ ¤ ¤
आत्मोन्नति के मार्ग में आयु को कम या ज्यादा होना बाधक नहीं है। आवश्यकता केवल अपने संस्कारों के जागरण की होती है।
¤ ¤ ¤
मनुष्य साधनों का दास नहीं है। वह साधन स्वयं बनाता है। धन स्वतः पैदा नहीं होता, किया जाता है। इसलिए निर्धनता पर आँसू बहाना अकर्मण्यता है।
¤ ¤ ¤
मनुष्य के व्यक्तित्व का सच्चा परिष्कार तो कठिनाइयों में ही होता है।
¤ ¤ ¤
एक इच्छा, एक निष्ठा और शक्तियों की एकता मनुष्य को उसके अभीष्ट लक्ष्य तक अवश्य पहुँचा देती है। इसमें किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं।
¤ ¤ ¤
जो सच्चे प्रेम का अमृत पाकर संतुष्ट हो जाता है, उसे संसार के मिथ्या भोगों की कामना भी नहीं रहती। जो लोग वासना से प्रेरित आकर्षण को प्रेम कहते हैं, वे प्रेम का वास्तवकि अर्थ ही नहीं समझते।
¤ ¤ ¤
इस संसार में आये दिन लोग जन्म लेते हैं और सैकड़ों की तादाद में रोज मरते रहते हैं, किन्तु जिन्होंने अपने सिद्धान्तों पर दृढ़तापूर्वक विश्वास किया, जो अपनी आस्थाओं के प्रति सदैव ईमानदार बने रहे, जिन्होंने प्रेम किया और जीवन की आखिरी साँस तक अपने व्रत का निर्वाह किया, उनके हाड़-मांस का तन भले ही नष्ट हो गया हो, पर उनका यशः शरीर युगयुगान्तरों तक लोगों को प्रेरणा व प्रकाश देता रहता है।
¤ ¤ ¤
केवल संकल्प करते रहने वाला निरुद्यमी व्यक्ति उस आलसी व्यक्ति की तरह कहा जाएगा, जो अपने पास गिरे हुए आम को उठाकर मुँह में भी रखने की कोशिश नहीं करता और इच्छा मात्र से आम का स्वाद ले लेने की आकांक्षा करता है।
¤ ¤ ¤
लापरवाही और गैर ज़िम्मेदारी ऐसे नैतिक अपराध हैं, जिसको दण्डमनुष्य को निरन्तर सामने आते रहने वाले घाटे के रूप में, अप्रतिष्ठा के रूप में देखना पड़ता है।
¤ ¤ ¤
अधिक अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए शान्त चित्त और योजनाबद्ध रीति से आगे बढ़ना और बात है।
और आकाश-पाताल जैसे मनोरथ खड़े करके उनके लिए साधन न जुटा पाने के कारण प्रस्तुत असफलता पर खीजते रहना अलग बात है।
¤ ¤ ¤
अधीरता एक प्रकार का आवेश है। बहुत जल्दी मनमानी सफलता अत्यन्त सरलतापूर्वक मिल जाने के सपने बालबुद्धि के लोग देखा करते हैं।
¤ ¤ ¤
यदि हिम्मत और साहस के साथ खतरों से खेलकर आगे बढ़ने पर भी मनुष्य को असफलता मिल जाए, तो वह उससे कहीं अच्छी है, जिसमें मनुष्य आशंकाओं से भयभीत होकर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है।
¤ ¤ ¤
जिस प्रकार एक ही मक्खी दूध में पहुँचकर उसे अभक्ष्य बना देती है। उसी प्रकार एक ही दुर्गुण मनुष्य की अनेक विशेषताओं को नष्ट कर देता है।
¤ ¤ ¤
सुसंस्कारिता की परीक्षा तब होती है, जब झगड़े के अवसर पर किस प्रकार सोचा और किस प्रकार व्यवहार किया गया, इस पर विचार किया जाए।
¤ ¤ ¤
अपनी प्रसन्नता दूसरे की प्रसन्नता में लीन कर देने का नाम ही प्रेम है।
¤ ¤ ¤
किसकी मैत्री किनसे है, यह पता लगा लेने के उपरान्त उसका चरित्र जानना कुछ भी कठिन नहीं रह जाता।
¤ ¤ ¤
जो सत्य के पथ पर एकाकी चल सके, विरोध कितना ही बड़े परिमाण में कितने ही प्रिय घनिष्ट लोगों का क्यों न हो, पर जो सत्य को सर्वोपरि समझकर हर दबाव के सामने झुकने से इंकार कर सके, वही सच्चा शूरवीर है।
¤ ¤ ¤
पात्रता के नियम मनुष्य पर तीन प्रकार से लागू होते हैं।
१-उत्साह और स्फूर्ति भरी श्रमशीलता,
२-तन्मयता, तत्परता भरी अभिरुचि
३-उत्कृष्टता के लिए गहरी लगन और ललक।
|